बिगड़े हुए जिसके हों दोनों जहाँ भावार्थः प्रस्तुत भजन में लेखक श्री कल्कि भगवान से प्रार्थना कर रहे है कि हे नाथ! आप दाता हो और मैं भिखारी हूँ यदि आपके दर पर भी मुझे आसरा न मिला तो में कहाँ जाऊँगा। मेरे तो लोक-परलोक दोनों ही बिगड़े हुए हैं मुझ दर-बदर को भटकते हुए को अपने चरणों में जगह दो। बिगड़े हुए जिस के हों दोनों जहाँ अब तुम ही कहो वह जाए कहाँ जिसका है ठिकाना यहाँ न वहाँ अब तुम ही कहो वह जाए कहाँ भगवान भटकते राही को अपने चरनों में जगह दे दो है कहीं न कोई जिसका मकां अब तुम ही कहो वह जाए कहाँ बिगड़े हुए जिस के हों ॥1॥ तुम सारे जग के दाता हो मैं भिखारी बन के आया हूँ झोली रही खाली जिसकी यहाँ अब तुम ही कहो वह जाए कहाँ बिगड़े हुए जिस के हों ॥2॥